मानव जीवन पर ग्रहों का प्रभाव मित्रों , मानव स्वभाव में एक विशेषता है कि वह केवल प्रत्यक्ष बातों, घटनाओं को ही जान कर संतुष्ट नहीं होता है, बल्कि वह जानना चाहता है कि जो हो रहा है वह - क्यों ? कैसे ? क्या हो रहा है ? तथा क्या होगा ? जिन बातों से मानव को प्रत्यक्ष लाभ होने की संभावना नहीं है, उनको जानने के लिए भी वह उत्सुक रहता है। यह मानवीय स्वभाव है, साथ ही आवश्यकता (आविष्कार की जननी है) यह बात भी यहाँ पर लागू होती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानव मन की इसी जिज्ञासु प्रवृत्ति ने मनुष्य को ज्योतिष शास्त्र के गंभीर रहस्योद्घाटन के लिये प्रवृत्त किया है। ज्योतिष शास्त्र की व्युत्पत्ति ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधकं शास्त्रम के आधार पर की गयी है, अर्थात् सूर्य चन्द्रादि समेत समस्त ग्रह और काल, काल माने, समय का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है इसमें प्रधानतः ग्रह नक्षत्र, धूमकेतु आदि ज्योतिः पदार्थों का स्वरूप , संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थिति प्रभृति समस्त घटनाओं का निरूपण एवं ग्रह नक्षत्रों की गति, स्थिति और उनके संचार के अनुसार शुभाशुभ फलों का अध्ययन और कथन किया जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि नभोमण्डल में स्थित ज्योति सम्बन्धी विविध विषयक विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते हैं, जिस शास्त्र में इस विद्या का सांगोपांग वर्णन रहता है, वह ज्योतिष शास्त्र है। वेदों के अनुसार ज्योतिष शास्त्र को वेद पुरूष का नेत्र कहा गया है । भारतीय ज्योतिष की परिभाषा एवं उसके विकास का क्रम- भारतीय ज्योतिष के अनुसार ज्योतिष शास्त्र को त्रिस्कन्ध (तीन खण्ड) गणित, फलित और होरा तथा कालान्तर में इसे और विकसित करते हुये स्कन्धपंच (पाँच खण्ड) होरा, सिद्वान्त, संहिता, प्रश्न और शकुन इन पाँच अंगों में बाँटा गया है। यदि विराट पंच स्कन्धात्मक परिभाषा का विश्लेषण किया जाय तो आधुनिक युग का मनोविज्ञान, जीवविज्ञान, पदार्थ विज्ञान, रसायन विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान आदि भी इसी शास्त्र के ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। इस शास्त्र की परिभाषा भारतवर्ष में समय समय पर भिन्न-भिन्न रूपों में बदलती रही है। प्राचीन काल में केवल ज्योतिः पदार्थों - ग्रह, नक्षत्र, तारों आदि के स्वरूप विज्ञान को ही ज्योतिष कहा जाता था। उस समय सैद्धान्तिक गणित का बोध इस शास्त्र के द्वारा नहीं होता था क्योंकि उस काल में केवल दृष्टि-पर्यवेक्षण के द्वारा नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त करना ही मूल उद्देश्य हुआ करता था। भारतीय मनीषियों की जब सूर्य और चन्द्रमा पर दृष्टि पड़ी तो उन्होंने सूर्य और चन्द्रमा को दैवत्व रूप में मान लिया । वेदों में कई स्थानों पर नक्षत्रों, सूर्य और चन्द्रमा के स्तुतिपरक मंत्र और ऋचायें मिलती हैं। अवश्य ही उन मनीषियों ने इन ग्रहों के रहस्य से प्रभावित होकर ही इन्हें देव स्वरूप में माना है। ब्राह्मण और आरण्यकों के समय में यह परिभाषा और विकसित हुयी तथा उस काल में नक्षत्रों की आकृति , स्वरूप, गुण एवं प्रभाव का परिज्ञान प्राप्त करना भी ज्योतिष के अन्तर्गत माना जाने लगा। लगभग पाँच सौ ईसा पूर्व में नक्षत्रों के शुभाशुभ फल के अनुसार कार्यों का विवेचन तथा ऋतु, अयन, दिनमान, लग्न आदि के शुभाशुभ फलानुसार विधायक कार्यों को करने का ज्ञान प्राप्त करना भी ज्योतिष शास्त्र की परिभाषा के अन्तर्गत आ गया। यह परिभाषा केवल यहीं तक सीमित नहीं रही अपितु ज्ञानोन्नति के साथ-साथ विकसित होती हुयी राशि और ग्रहों के स्वरूप, रंग, दिशा, तत्व, धातु आदि के विवेचन भी ज्योतिष शास्त्र के अन्तर्गत आ गये।
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